समाजशास्त्र का क्षेत्र (scope of sociology) 11

समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है, इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की न तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है |क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह विज्ञान कहां तक फैला हुआ है अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन संभावित सीमाओं से है जिनके अंतर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के संबंध में विद्वानों के मतों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है :
1- स्वरूपआत्मक संप्रदाय(Formal School)
2- समन्वयआत्मक संप्रदाय(Synthetic School)
स्वरूपआत्मक संप्रदाय( Formal School)
इस संप्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है इस संप्रदाय के प्रवर्तक जर्मन समाजशास्त्री जॉर्ज सिमेल हैं इस संप्रदाय से संबंधित अन्य विद्वानों में वीर कांत ,वानवीज, मैक्स वेबर तथा टानीज आदि प्रमुख हैं इस विचारधारा से संबंधित समाजशास्त्रियों की मानता है कि अन्य विज्ञानों जैसी राजनीतिशास्त्र, भूगोल, अर्थशास्त्र, इतिहास ,भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि के समान समाजशास्त्र भी एक स्वतंत्र एवं विशेष विज्ञान है जैसे प्रत्येक विज्ञान की अपनी कोई प्रमुख समस्या या सामग्री होती है जिसका अध्ययन उसी शास्त्र के अंतर्गत किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र के अंतर्गत अध्ययन की जाने वाली भी कोई मुख्य सामग्री या समस्या होना होनी चाहिए ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र एक विशिष्ट एवं स्वतंत्र विज्ञान बन सकेगा और इसका क्षेत्र निश्चित हो सकेगा इस संप्रदाय के मानने वालों का कहना है कि यदि समाजशास्त्र की संपूर्ण समाज का एक सामान्य अध्ययन बनाने का प्रयास किया गया तो वैज्ञानिक आधार पर ऐसाकरना संभव नहीं होगा ऐसी दशा में समाजशास्त्र एक खिचड़ी शास्त्र बन जाएगा अतः समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसके अंतर्गत सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों का अध्ययन नहीं करके इन संबंधों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाए सामाजिक संबंधों के सस्वरूआत्मक पक्ष पर जोर देने के कारण ही इस संप्रदाय को स्वरूप आत्मक संप्रदाय कहा जाता है
स्वरूप आत्मक संप्रदाय की आलोचना
1- स्वरूप आत्मक संप्रदाय से संबंधित विद्वानों का यह कहना गलत है कि सामाजिक संबंधों के स्वरूप का अध्ययन किसी अन्य विज्ञान के द्वारा नहीं किया जा जाता, अतः समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान के रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए |
2-इस संप्रदाय के समर्थकों ने स्वरूप तथा अंतर्वस्तु में भेद किया है और इन्हें एक दूसरे से पृथक माना है, लेकिन सामाजिक संबंधों के स्वरूप तथा  अंतर्वस्तु को एक दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है|
3-इस संप्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक एवं स्वतंत्र और परिशुद्ध विज्ञान बनाना चाहते हैं, परंतु ऐसा होना संभव नहीं है| 4-इस संप्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान मानते हुए इसके अध्ययन क्षेत्र को सीमित रखने पर जोर देते हैं |उनके अनुसार समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामाजिक संबंधों के कुछ विशिष्ट स्वरूपों तक  ही सीमित है, परंतु उनकी इस प्रकार की मानता ठीक नहीं है |
5-इस संप्रदाय के समर्थकों ने सामाजिकरण के स्वरूपों और सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में कोई अंतर नहीं किया है तथा दोनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया है ,जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है | सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में केवल सामाजिकरण के ही नहीं बल्कि असामाजिकरण के स्वरूप भी मौजूद हैं |
स्पष्ट है कि इस संप्रदाय की  मान्यताएं सही नहीं है इसके समर्थक समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को ठीक से स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं|

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