पिता को समर्पित कविता
पिता है
वो जो ऊपर से सख्त
अंदर से नरम,डांट फटकार कर
सफलता की
रोज दुआ करता है मेरी
बहाकर पसीना
जरूरतों को कर सीमित
करता है पूरी जरूरतों को मेरी
वो चांद, वो सूरज,
की तरह चमकता
देखना चाहता है,मुझे
वो बचपन में,
बैठा कर,पीठ पर
सारे जहां की
सैर कराता है मुझे
वो बिगड़ जाने पर काम
थपथपा कर पीठ
हौसले को बढ़ाता है मेरे
सब सही हो जाएगा,घबरा मत
अच्छा करने को प्रेरित करता है मुझे
वो बैठा है घर में
मुझे सुकून से,बेपरवाह
बैठा रखा है,दुनिया में सैर सपाटे करने को मुझे
जानो उनकी कद्र करना
बैठे हैं जब तक
वो घर पर,समझो साक्षात प्रभु
बैठे हैं,आप के द्वारे
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